कुछ लिखना है तुम पर!

"कुछ लिखना चाहती हूं तुम पर,
मगर लिखूं तो लिखूं कैसे?
अंजान हूं अभी,नादान भी,
सूझ-बूझ में ज़रा कच्ची हूं मैं,
जब ज़माना भागता है,
तो मैं ना जाने क्यों डर के थम जाती हूं,
मसरूफ रहती हूं कई दफा एक अलग जाहां मैं,
जिसमें तुम भी हो पर बस हकीकत नहीं,
कुछ कहानियां इकमेनान से सुननी हैं तुमसे, और कुछ किस्से तुम्हें सुनाने भी हैं, पर कैसे केह दूं की जिन कहानियों में मैं ही बिखर गई थी उन्हें सुनाने में अज़ीयत नहीं होती?
तुम्हारी आंखों में देखकर लगता है मानो अनगिनत सितारों से भरा एक सौरमंडल हो,
अंजान हूं मैं अभी की कोनसा सितारा किस दीद से तेजल होता है,
वो सेजल सी कलकल आवाज़ तुम्हारी तो सुनी है कई बार मैंने, पर जब अनकहे बोलों को पहचान लूंगी तब तुम पर कुछ लिखूंगी,
तुम्हारे वो शब्द जो कहते हैं मुझसे की बात अकमल हो चुकी है,
उन शब्दों में छुपी सी जो अमल है उसे सुनकर मन में एक अनोखी सी उथलपुथल हो जाती है,
तुम शब्द रखते हो मेरे सामने और मैं ना जाने कैसे जस्बात उठा लेती हूं,
ना जानें क्यों सारे कोरे कागजों पर मन ही मन हर रोज़ एक कविता सी उतार देती हूं,
तुम्हे सुनते सुनते मैं तुममें कहीं खो जाती हूं,पर अभी एक पर्दा है जो मलमल नहीं मखमल सा है,
शायद जब तुममें ना खोके, मैं खोए हुए तुम की तुमसे मुलाकात मुकम्मल कर दूंगी तब तुम पर कुछ लिखूंगी,
तुमसे कई सवाल करते करते जब तुम्हारे सवालों के जवाब भी मैं खुद में ढूंढ लूंगी तब तुम पर कुछ लिखूंगी,
तुम तक का ये मेरा सफ़र लंबा तो है पर यकीन है मुझे खुद पर मेरे कदम हर राह पर मुसलसल रहेंगे,
मुझे इस सफ़र में रास्तों की परवाह नहीं है, मैं खुदको लहर मान रही हूं,
तुम्हारी हर बात पर पलकें बिछा कर ना जाने कितने सपने बुनती हूं,
शायद जब तुममें तुमको ढूंढते ढूंढते मैं खुद में तुम्हें ढूंढ लूंगी तब तुम पर कुछ लिखूंगी,