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Image by Leo Chane

गज़ल १


की कुछ बदले नहीं है वो,

बस समझ के परे हो गए है।

लगता है हमारे शेर पढ़कर,

उनके भी ज़ख्म हरे हो गए है।


और अपनी राएगाम ज़िंदगी,

को महफ़ूम देने इस क़दर निकले है।

की अब हमारे भी बस्ते,

ख़्वाबों से भरे हो गए है।


की शाख से एक पत्ता गिरा था,

हमने उसी पर तुम्हे एक खत इरसाल किया है।

डाकिए सें मिलने की हिम्मत इस बार हुई,

वरना तो पत्ते कई मर्तबा हाथो मर कुरकुरे हुए है।


(अन्तिम शेर यू है की)


मेरे इश्क की फजीलत पर संदेह ना करना,

मैंने तकलीन ढ़ंग से निभाई है।

ये तो तुम जानो किसे अपनाना है,

वरना आशिक़ ज़माने में हमसे भी बुरे हुए है।


-शांतनु शर्मा।

 

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