मैं तो माटी के घड़े बेकता हूँ।

इन अमीरों के शहर में,
रोज़ मिलो दूर से चला आता हूँ,
कहने को तो इनसे ज्यादा वफ़ादार हूँ,
लेकिन फिर भी कदरदार नही हूँ,
दो वक़्त की रोटी के लिए।
इनकी तरह अपना ईमान तो नही बेकता,
मैं तो अपने हाथों की कलाकारी से
माटी के घड़े बेकता हूँ।
मैं इनकी तरह बड़ी गाड़ियों में
तो नही घूमता, ना ही किसी पक्के
मकान में रहता हूँ,
मेरा तो एक कच्चा सा मकान है
और पैदल ही कमाने के लिए निकल पड़ता हूँ।
हर सुबह इस सोच के साथ निकलता हूँ
क्या आज रात का खाना खा पाऊंगा,
या फिर से कल की तरह भूखा ही सो जाऊँगा।
मेरे पास पैसों से भरी तिजोरी तो नही है
लेकिन ईमानदारी के कुछ सिक्के जेब मे पड़े है,
बस तलाश है इन माटी के घड़ो के खरीददार की।
- तुषार गोयल
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