ये कैसा संबंध है?
Updated: Jun 7, 2021

रात की चाँदनी, बनारस के घाटों से बहती गंगा के जल को और शीतल बना रही थी। किनारे गड़े खूंटों पे टंगे लालटेन की रौशनी, और चाँद के साथ रास करती उसकी चाँदनी, द्रश्य को बहुत अलौकिक छवि दे रहे थे। घाटों पर से बेहता गंगा का निरंतर जल जीवन के असीमित प्रवाह को दर्शा रहा था। इधर एकांत में बैठा निहाल एक के बाद एक छोटे कंकड़ पानी की और फेंक रहा था। ऐसा करने में न जाने उसे क्या आनंद मिल रहा था। उसे देख कर लग रहा था की वह बहुत देर तक अपने मन के उहापोह को सम्हाल न पा रहा था। चुप्पी के कुछ पलों को तोड़ कर वह बड़े ही विचिलित मन से किशोरी से बोला, "ये कैसा संबंध है किशोरी? एक दूसरे से प्रेम करके भी हम चोरो की भाती रहते है! सबके बीच अजनबियों सा व्यवहार करते है!" इतना कह कर वह एक बार फिर नदी में एक कंकर ज़ोर से फेंकता है।
किशोरी धीमे स्वर में कहती है, "हम दोनों बहुत अलग है निहाल। अब देखो न, मुझे गंगा की निर्मल धारा को शांति से बहता देख आनंद मिलता है, और तुम्हे इसमें कंकर फेंक कर इसकी हलचल से!"
निहाल: "मुझे नहीं समज आती तुम्हारी ये बाते। मुझे बस इतना समज आता है की अगर हमने एक दूसरे से प्रेम किया है तो फिर उसे स्वीकारने में इतना भय क्यों?"
किशोरी: "काश तुम मेरे भय को समज पाते।"

दोनों पुनः शांत हो जाते है। निहाल की आँखों में आँसू आ जाते हैं और वह किनारे पर सटी नौका की ओर ताकने लगता है। आकाश को पूर्णता चाँदनी को सौप कर उजाला विश्राम को चला जाता है और घाट पर हलचल कम हो जाती है। नदी के उस ओर से बहते हुए दीपक, धाराप्रवह के बीच में आके द्रश्य को सुन्दर बना रहे थे।
जितना शांत और निर्मल गंगा का बहता जल था उतना ही विचलित निहाल और किशोरी का मन था। कुछ देर के विराम के बाद।
निहाल: "तुमने ही मुझे समझाया था की हमारे बीच उम्र का अंतर है तो क्या, हमारा प्रेम तो सचाई की मिसाल है। और अब तुम ही हमारे संबंध को परिभाषा देने से घबरा रही हो। तुम जानती हो तुम्हारे अतीत से मुझे कोई बैर नहीं। तुम्हारा अतीत तुम्हारा कल था, तुम्हारा वर्त्तमान तुम्हारा आज है और तुम्हारा भविष्य भी। तुम विधवा हो तो इसमें तुम्हारा तो दोष नहीं। आखिर कब तक पश्याताप की अग्नि में खुद को झकझोरती रहोगी जब तुमने कोई पाप ही नहीं किया? क्यों नहीं अतीत को भुला कर मेरे साथ जीवन की नई कल्पना करतीं?"
किशोरी: "मैं एक विधवा हु निहाल। समाज की प्रधानता और कटाक्ष में बंधी वो विधवा जिस दोबारा सपने देखना का हक इस समाज ने नहीं दिया है। मेरी नियति ने मेरे चारो ओर एक ऐसी लकीर कीच दी है जिसे पार करने का साहस मुझमे नहीं है। एक बार अपने संसार को उजड़ता देख कर दुबारा उसे संजोने की हिम्मत नहीं है अब मुझमे। मुझे माफ़ कर दो निहाल। (रोते हुए)"
निहाल: "हर किसी को अपने जीवन के लिया सोचना का अधिकार है किशोरी, जो उससे कोई भी नहीं छीन सकता। ये समाज तो आज तक किसी का नहीं हुआ है। इससे क्या अपेक्षा करना, इसने तो आज तक किसी को नहीं छोड़ा। पर इसका अर्थ यह तो नहीं की हम जीवन को अँधेरे में गुजार दे। तुम्हे अपने आप को दूसरा अवसर देना है पूरा हक है, और कंही न कंही ये तुम्हारा अपने प्रति दायित्व भी।"

किशोरी: "(रोते हुए) रहने दो निहाल! ये सब बांते मेरे लिए नहीं बनी है। ये सब कह कर मेरे मन के दीपक की लौ को न झकझोरो। ये सब बांते किस्से-कहानी और पुस्तकों में ही अच्छी लगती है। वास्तविक जीवन की अंधियारी और कड़वी सच्चाईओं की कसौटी पर ये नहीं टिकतीं। जब नियति की ठोकरे पड़ती है तो अंतर्मन झुलस जाता है और अच्छी बातें भी भ्रम सी लगती है। हां मुझे तुमसे बहुत प्रेम है और शायद हमेशा रहेगा, लेकिन जितना तुम्हारे लिए मेरे प्रेम सच्चा है, उतना ही यह भी सच है की मैं एक विधवा हु। और ये जीवन मुझे इसी बोझ के साथ जीना है। तुम पूछते हो ये कैसा संबंध है? ये कैसा प्रेम है?
ये त्याग का प्रेम है निहाल। वो त्याग जो अग्नि सा क्रूर है। ये कुछ नहीं देखता, न हक, न नियत, बस त्याग। बस त्याग। यही हमारा प्रेम है और यही इसकी परिभाषा।"
इतना कह कर किशोरी रोती हुई अवस्था में "त्याग! त्याग!" दोहराती हुई तेज़ी से वहाँ से चली जाती है। इधर अश्रु निहाल की आँखों से निरंतर बहते चले जा रहे थे। और उधर गंगा का जल बिना सिसक के अपनी निर्मल धारा में बहता चला जा रहा था।
-श्रेयश
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