वो और ये

वो सावन मास था,
जहाँ बारिश में भीगने से उत्साह मिलता था,
ये भी सावन मास है,
जहाँ सर्दी पकड़ने के डर से घर में रहना अच्छा लगता है।
वो सूर्य की किरणें थी,
जो चेहरे पर धूप की छाँव लाया करती थी,
ये भी सूर्य की किरणें हैं,
जो बिन देख ही गायब हो जाती है।
वो शाम थी,
जिसकी हवा शोर से गूँजती थी,
ये भी शाम है,
जहाँ पर सन्नाटे की धारा बहती है।
वो सपना था,
जिसमें ज़िन्दगी सुहानी लगती थी,
ये भी सपना है,
जो रातों की नींद उड़ा देती है।
वो ख़्वाब ही था,
जो मन में हौसला डालता था,
ये भी ख़्वाब है,
जो पैरों को चलने से रोकता है।
वो रातें कुछ ऐसी थी,
जो कल की ओर आगे बढ़ाती थी,
ये भी ऐसी रातें हैं,
जहाँ कल का पता ही नहीं चलता है।
वो त्योहार कुछ इस तरह थे,
जिसमें मिठाईयों का भंडार हुआ करता था,
कुछ त्योहारें ऐसे भी हैं,
जो चार दीवारों में ख़त्म हो जाते हैं।
वो बारिश ही थी,
जिसमें प्रेम लीला के दृश्य होते थे,
ये भी बारिश ही है,
जो बाढ़ से सबको भस्म करती है।
वो दोस्ती ही थी,
जो ज़िन्दगी भर का साथ वादा कराती थी,
ये भी दोस्ती ही है,
जो एक दिन में ख़त्म हो जाती है।
कुछ बातें ऐसी थी,
जो दिल से रिश्ता करवाती थी,
कुछ बातें अब ऐसी है,
जो पल-पल पर अनजान बनाती है।
वो बचपन कुछ इस तरह से था ,
जिसमें नादानियाँ झलकती थी,
ये बचपन अब ऐसा है,
जहाँ पे बड़ी-बड़ी बातें ज़्यादा होती है।
वो अतीत ऐसा भी था,
जो ज़िन्दगी की शिक्षा दिलाता था,
ये अतीत कुछ ऐसा है,
जो आज और कल में ही रहना चाहता है।
ज़िन्दगी थी वो,
जहाँ पे रोने के लिए कंधे मिलते थे,
ज़िन्दगी है ये,
जो दस उँगलियों में ही आँसु बहाना चाहती है।
वो मेरी कलम थी,
जो बिन सोच ही सच से रूबरू करवाती थी,
ये भी मेरी कलम ही है,
जो अब झूठ लिखने से भी काँपती है।
-लावण्या
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